देश post authorAdmin 16-May-2020 (0)

ख्वाहिश थी ज़िन्दगी की, मिली मौत

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फिर ऐसी ही रूह कंपा देने वाली, सोचने को मजबूर करने वाली खबर...लाचार , बेबस जिन्दगियां आज फिर मौत के मुंह में समा गई। आज फिर उस तबके पर कहर टूटा जो पहले से ही टूटा हुआ है। उन्होंने क्या मांगा था , क्या ख्वाहिश थी उन गरीब मजबूर मजदूरों की ? बस इतनी ही न कि उन्हें अपने अपनों के बीच पहुंचने की जल्दी थी। अपने छोटे से आशियाने में परिवार के बीच जिन्दगी जीना चाह रहे थे। लेकिन ये क्या, बेरहम कुदरत ने रास्ते में ही उनसे उनकी जिन्दगी छीन ली। 

यूपी के औरैया में दर्दनाक हादसे में 24 मजदूरों की जान चली गई। कई ऐसे हैं जो जिन्दगी और मौत की जंग लड़ रहे हैं । चाय पीने के लिए ढाबे पर रूके इन मजदूरों की डीसीएम को तेज रफ्तार ट्रक ने टक्कर मार दी। कुछ डीसीएम में थे तो कुछ खड़े होकर चाय पी रहे थे । इस दौरान कई मजदूरों की मौत ट्रक के नीचे दबने से हुई। 

कोरोना से जंग के बीच देश में लॉकडाउन जारी है। ऐसे में हर कोई अपने अपनों के बीच , अपने आशियानों तक पहुंचने की जद्दोजहद में है। खासकर वो तबका जो मेहनत मजदूरी कर पाई पाई का जुगाड़ कर रहा था लेकिन अचानक ही दो जून की रोटी के लाले पड़ गए। आसान है कहना कि कोरोना से बचने के लिए घर में रहें। बेशक घर में रहना जरूरी है। लेकिन जिन बेबस जिन्दगियों को सर छुपाने के लिए अदद छत भी नसीब न हो,,,,वो तो अपनों के बीच जाने को फड़फड़ाएगा। हर मुमकिन कोशिश करेगा। और यही कोशिश तो की थी उन बेबस मजदूरों ने भी। कोई महाराष्ट्र से तो कोई उत्तराखंड ,पंजाब से । बस अपने घर पहुंचने की जल्दी। 

पैदल मीलों का सफर तय करना इनका शौक नहीं मजबूरी है। कोई पैदल, कोई हल में जुतकर, कोई कंटेनर तो कोई साइकिल के दो पहिये से लंबी सड़कें नाप रहा है। इनकी मुश्किलों का अंदाजा लगाना हमारे आपके लिए बेहद कठिन है। कड़े इम्तिहानों के बीच ऊपर वाला भी इनपर रहम करना भूल गया शायद। तभी तो सड़कें खून से रंगी हैं। देश के अलग अलग हिस्सों में बिखरा  खून इनकी बेबसी की कहानी बयां कर रहा है।

कई मजदूर सड़क हादसे का शिकार हो रहे हैं. ताजा मामला  यूपी के औरेैया का है जहां 24 मजदूरों की जान चली गई। इससे पहले मध्य प्रदेश के गुना जिले में भीषण सड़क हादसे में आठ मजदूरों की  मौत हो गई , जबकि 50 मजदूर गंभीर रूप से घायल हो गए।वहीं यूपी के मेरठ में बुधवार रात करीब एक बजे दर्दनाक हादसे में 6 मजदूर काल के ग्रास में समा गए।  इससे चंद रोज पहले ट्रेन की चपेट में आने से भी मजबूर जिन्दगियां पलक झपकते ही खत्म हो गई थी।   यानि हर तरफ बस मजबूर, बेबस, कमजोर पिस रहा है। कहीं रोटी की जंग तो कहीं जिन्दगी की। 

साहब ! अमीरों के लिए तो अब तक कर ही रहे हो , अब इन गरीब मजदूरों के लिए भी कुछ कीजिए...क्या वाकई इनकी जिन्दगी इतनी सस्ती है...क्या ये तबका ऐसे ही सड़कों पर मरने के लिए पैदा हुआ है ? सड़कों पर बिखरे इनके खून के छींटों के दाग कैसे धोओगे ? क्योंकि इन्हें कोरोना नहीं बेबसी मार रही है। लाचारी, गरीबी और भूख मार रही है।

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